जुलूस ए चेहलुम के लिए हजारो की तादाद में मातमी या हुसैन की सदा के साथ चल पड़े , हुसैन A S की शहादत ने पूरी कायनात को मानवता का सबक दिया
मुंबई
मलाड मालवनी
संवाददाता
कल 24/8/2024, गेट नंबर 7 मालवनी मलाड वेस्ट से निकलने वाला कदीमी चेहल्लुम का जुलूस गेट नंबर 7 से उठकर गेट नंबर 5 पर जाकर समाप्त हुआ ।
जुलूस.ए.चेहल्लुम के लिए हजारों मातमी या हुसैन या हुसैन की सदा के साथ चलते रहे इमाम हुसैन
अलैहिस्सलाम की शहादत सम्पूर्ण मानवता के लिए थी।
ए मुसलमानों अल्लाह और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शुक्र अदा करो कि उन्होंने उस वक्त इमाम होने के बावजूद तुम्हें जिहाद का हुक्म नहीं दिया, वर्ना तुम और तुम्हारे कबीले किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहते।
उन्होंने अपने ख़ुत्बे में हिन्दुस्तान जाने की भी ख्वाहिश की मगर यजीदी फ़ौज ने उनके सर को कलम कर उन्हें शहीद कर दिया। जिसकी जितनी निन्दा की जाएं कम है यजीदी फ़ौज का यह कृत्य ताअ क्यामत तक माफ़ी के योग्य नहीं है।
मानव इतिहास में सत्य और धर्म की रक्षा के किये दो महान युद्ध लड़े गये-
पहली जंग हज़ारों साल पहले भारत के दक्षिण में हिन्द महासागर के पार जहाँ भगवान श्री राम ने असत्य/अधर्म और अहँकार के प्रतीक रावण का वध कर विजय श्री प्राप्त की और सनातन धर्म,संस्कृति को पल्लवित किया ।
दूसरी जंग मध्य एशिया में ईराक़ के कर्बला में 10 मोहर्रम हिजरी सन 61(10 अक्टोबर 680 ईस्वी) में ईमान और इंसानियत के हामी मसीहा हज़रत मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और ज़ुल्म और अधर्म के प्रतीक ज़ालिम बादशाह यज़ीद के बेशुमार लश्क़र के बीच में हुई ।
यद्यपि इस दूसरी जंग में हज़रत ईमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनका पूरा खानदान शहीद हुआ पर उनकी शहादत ने अरब जगत ही नहीं बल्क़ि सारी दुनिया में इंसानियत,सच और मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना कर इस्लाम को रहती दुनिया तक के लिए सुर्ख़रु कर दिया।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत और कर्बला के पूरे वाक़ये को समझने के लिए हमें अतीत में लगभग 1400 साल पहले लौटना होगा। आठ जून, 632 ई. को पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद साहब सल्लाहु अलैहे वसल्लम के इंतक़ाल(देहान्त) के बाद उनके और उनके दीन के दुश्मन धीरे-धीरे फ़िर हावी होने लगे। उन्हें लगा है कि यही वह अवसर है जब इस्लाम को उसकी शैशवावस्था में ही कुचल कर अरब के रेगिस्तानों में दफ़न किया जा सकता है।
पहले दुश्मनों ने मोहम्मद साहब की बेटी मानवता की मां देवी तुल्य जनाबे सैय्यादा फातिमा जहरा सलाम उल्लाह अलैहा के घर पर हमला किया, जिससे घर का दरवाजा टूटकर जनाबे सैय्यादा फातिमा जहरा सलाम उल्लाह अलैहा पर गिरा और 28 अगस्त, 632 ई. को वह इस दुनिया से चली गईं। कुछ वर्षों बाद मौका मिलते ही दुश्मनों ने मस्जिद में नमाज पढ़ते समय मोहम्मद साहब सल्लाहु अलैहे वसल्लम के दामाद हजरत अली अलैहिस्सलाम के सिर पर ज़हर बुझी तलवार मार कर इब्ने मुलजिम नामक हत्यारे आतंक वादी ने उन्हें शहीद कर दिया। उसके बाद दुश्मनों ने हज़रत मोहम्मद साहब सल्लाहु अलैहे वसल्लम के बड़े नाती को सुलह करने के बाद सत्ता पर काबिज होकर हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को सत्ता धारियों ने साजिश रचकर जहर देकर शहीद किया।
दुश्मन हज़रत मोहम्मद साहब सल्लाहु अलैहे वसल्लम के पूरे परिवार यानि उनके अहलेबैत अलैहिस्सलाम खानदाने बनी हाशिम और इस्लाम को खत्म करना चाहते थे, इसलिए उसके बाद वे हज़रत मोहम्मद साहब सल्लाहु अलैहे वसल्लम के छोटे नाती हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर दबाव बनाने लगे कि वह उस समय के स्वयम्भू और साजिश षड्यंत्र कारी बादशाह और जबरन ख़लीफ़ा बने ज़ालिम ‘यज़ीद’ मलऊन का समर्थन करे और उसे ख़लीफ़ा क़ुबूल करें।
यजीद जो कहे उसे इस्लाम में शामिल करें और जो वह इस्लाम से हटाने को कहे वह इस्लाम से हटा दें। यानी हज़रत मोहम्मद साहब सल्लाहु अलैहे वसल्लम के बनाए हुए दीन ‘इस्लाम’ को बदल दें। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर दबाव इसलिए भी था, क्योंकि वह पैग़म्बर मोहम्मद साहब सल्लाहु अलैहे वसल्लम के चहेते नाती थे। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बारे में हज़रत मोहम्मद साहब सल्लाहु अलैहे वसल्लम ने कहा था कि “हुसैन-ओ-मिन्नी वा अना मिनल हुसैन’ यानी हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से यानी जिसने हुसैन को दुख दिया उसने मुझे दुख दिया।
यज़ीद चाहता था कि इमाम हुसैन उसका समर्थन कर दें, वह जानता था अगर इमाम हुसैन उसके साथ आ गए तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। लाख दबाव के बाद भी हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उसकी किसी भी बात को मानने से इनकार कर दिया, तो यजीद ने इमाम हुसैन को कत्ल करने की योजना बनाई।
चार मई, 680 ई. में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीने में अपना घर छोड़कर शहर मक्का पहुंचे, जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनका कत्ल कर सकते हैं। हुसैन ये नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर खून बहे, इसलिए हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और हज को उमरा में बदलकर और शहर कूफे की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फौज उन्हें घेर कर कर्बला ले आई।
जब दुश्मनों की फौज ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को घेरा था, उस समय दुश्मन की फौज बहुत प्यासी थी, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने दुश्मन की फौज को पानी पिलवाया। यह देखकर दुश्मन फौज के सरदार ‘हजरत हुर्र’ अपने परिवार के साथ हुसैन से आ मिले। इमाम हुसैन ने कर्बला में जिस जमीन पर अपने खेमे (तम्बू) लगाए, उस जमीन को पहले हुसैन ने खरीदा, फिर उस स्थान पर अपने ख़ेमे लगाए। मोहर्रम माह की 2 तारीख़ से यज़ीद की बेशुमार फ़ौजों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम खके ख़ेमों को घेर लिया। यजीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन पर दबाव बनाता गया कि इमाम हुसैन उसकी बात मान लें,
जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यजीद की शर्तें नहीं मानी, तो दुश्मनों ने अंत में मोहर्रम की 7 तारीख से नहर पर फौज का पहरा लगा दिया और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के खेमों में पानी जाने पर रोक लगा दी गई। अब कर्बला की तपती सरज़मीन पर ऊपर आग बरसाता सूरज था और नीचे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का भूखा-प्यासा ख़ानदान।
तीन दिन गुजर जाने के बाद जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे तो इमाम हुसैन ने यजीदी फौज से पानी मांगा, दुश्मन ने पानी देने से इंकार कर दिया, दुश्मनों ने सोचा हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्तें मान लेंगे। अब भी इमाम हुसैन ने यजीद की बात नहीं मानी तो दुश्मनों ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के खेमों पर हमले शुरू कर दिए। इसके बाद हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत में गुज़ारी और दुआ की कि मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे शहीद हो जाएँ, लेकिन अल्लाह का दीन ‘इस्लाम’,जो मेरे नाना (मोहम्मद साहब) लेकर आए थे, वह बचा रहे।
उन्होंने हलमिन नासेरीन यन सोरोना का सदा भी मुसलमानों की मदद के लिए लगाई मगर रसूल अल्लाह सल्लाहु अलैहे वसल्लम के साथ रहने वाले 2000 साहाबियो और लोगों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मदद की पुकार को अनसुना कर दिया। उम्मते मुस्लिमा की लाखों की भीड़ तमाशबीन बनी रहीं और अहलेबैत अलैहिस्सलाम के मानने वाले शहादत पे शहादत पेश करते रहे।
10 अक्टूबर, 680 ई.,(मोहर्रम महिने की भी दसवीं तारिख़) को सुबह नमाज के समय से ही जंग छिड़ गई यद्यपि इसे जंग कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के लश्कर में मात्र 72 लोग थे जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे और 80 साल के बुज़ुर्ग भी शामिल थे। इस्लाम की बुनियाद बचाने में कर्बला में 72 लोग शहीद हो गए, जिनमें दुश्मनों ने 13 साल के बच्चे हजरत कासिम को जिन्दा रहते घोड़ों की टापों से रुन्दवा दिया और सात साल आठ महीने के बच्चे औन-मोहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर उसे शहीद कर दिया।
दोपहर पश्चात जब लगभग सभी शहीद हो गए तब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम प्यास की शिद्दत से बेहोश 6 माह के बच्चे हज़रत अली असग़र को गोद में लेकर दुश्मनों के पास आये और उसके लिए इंसानियत के नाम पर पानी मांगा। बज़ाय पानी देने के ज़ालिम यज़ीद के इशारे पर उसके एक लड़ाके हुर्मला ने उस मासूम के गले पर तीन नोकों वाला तीर मार कर उसे शहीद कर दिया। सबसे आख़िर में यज़ीद के एक सैनिक शिम्र ने ईमाम हुसैन को उस वक़्त शहीद किया जब वह सज़दे में थे। इसीलिए मोहर्रम की 10 वीं तारिख़ को यौमे आशूरा कहा जाता है।
इमाम हुसैन की शहादत के बाद दुश्मनों ने इमाम के खेमे भी जला दिए और परिवार की औरतों और बचे बीमार लोगों को बंधक बना लिया। कर्बला के शहीदों के सरों को नेजों(भालों)पर टाँग कर और खानदान की औरतों के सरों पर से दुपट्टा खींच कर उनके ज़ुलूस निकाले गए। दीन-ईमान,सच और इंसानियत के लिए दी गई ईमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की इस बेमिसाल क़ुरबानी और शहीदों की लाशों/औरतों की इस बेहुरमती की दास्तान हुसैन की बहन सैय्यादा जैनब सलाम उल्लाह अलैहा ने क़र्बला से लौट कर इस्लामी दुनिया को मजलिसों अजादारी मातमदारी गिरियां करके बताई और उन्हें जागृत किया। जिससे सारे अरब जगत में रोष फैल गया तथा लोग पैग़म्बरे इस्लाम के सच्चे दीन इस्लाम के लिए और ज़्यादा एक जुट होते गए और इस्लाम तेजी से फैलने लगा।
इसीलिए मौलाना मोहम्मद अली जोहर ने कहा था-
“क़त्ल ए हुसैन अस्ल में मर्ग ए यज़ीद है,
इस्लाम ज़िंदा होता है हर क़र्बला के बाद।”
ईमाम हुसैन की इस अज़ीमुश्शान क़ुरबानी से मानवता में विश्वास रखने वाला हर शख़्स प्रेरित हुआ है।
नेल्सन मंडेला कहते हैं-“जेल में 20 साल की सख़्त सज़ा काटने के बाद एक रात हार कर मैंने सरकार की तमाम शर्तें मानने का फ़ैसला किया लेकिन तभी मुझे ईमाम हुसैन और क़र्बला का वाक़या याद आ गया । हुसैन ने मुझे हक़ और आज़ादी के लिए खड़े रहने और लड़ते रहने की हिम्मत दी।
महात्मा गाँधी ने कहा-“मैंने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से सीखा कि कमज़लूमियत में किस तरह जीत हासिल की जा सकती है। इस्लाम का प्रसार तलवार से नहीं बल्क़ि हुसैन के बलिदान का नतीज़ा है।
रवींद्रनाथ टैगोर कहते हैं-“इंसाफ़ और सच्चाई को ज़िंदा रखने के लिए हथियार और फ़ौज़ ज़रूरी नहीं है बल्क़ि कुर्बानी दे कर भी जीत हासिल की जा सकती है जैसा हुसैन ने क़र्बला में किया।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का बलिदान किसी एक क़ौम या किसी एक मज़हब के लिए न होकर सम्पूर्ण मानवता के लिए था यही वज़ह है कि ईमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को चाहने और मानने वाले हर धर्म में बड़ी संख्या में मिलते हैं। लब्बाईक या हुसैन लब्बैक या हुसैन।