दिलीप कुमारजी को श्रद्धांजलि ” श्री नाना पाटेकर की वोल से क्या क्या बोल गए नाना पाटेकर दिलीप साहब की तारीफ में?

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रिपोर्टर:-

हिमालय कि परछाई  , मेरे साहेब चले गए, बहुत लोग लिखेंगे, बहुत कुछ लिखेंगे।

शब्द फिर भी बौने रह जाएंगे। बहुत बड़ा कलाकार और बेहद जहीन इंसान।
स्मृति वंदन करते हुए मै रुंधा हुआ हूं कि उनकी आखरी यात्रा में सहभागी नहीं हो सका।
मरते दम तक खलता रहेगा ये खोया हुआ पल। पिता समान थे वो मेरे।
मेरी पीठ पर उन्होने हाथ फेरा था, वो आज भी मेरे हौसले की वजह है।
मुझे आज भी याद है, एक दिन घर गया था उनके, बुलाया था उन्होंने मुझे। काफी बारिश थी और में पूरा भीगा हुआ। पहुंचा तो दरवाजे पर खड़े थे।
अंदर गए, टॉवेल लाए, मेरा सिर पोंछने लगे। अंदर से खुद का शर्ट लाकर पहनाया मुझे।
मैं सूखा कहां रहता, भीतर तर भीगा ही रह गया था।
आँखें दगा दे रही थी, लेकिन मैं फिर भी खुद को सँभालने की कोशिश कर रहा था।
कितनी तारीफ़ कर रहे थे, क्रांतिवीर फिल्म की। फिल्म के एक-एक प्रसंग पर उनकी टिप्पणी सुनते हुए मैं तो पूरा उनमें गुम हो गया था। मैं उनकी आंखे पढ़ रहा था।
आंखों से बयां किये हुए कई संवाद मैंने सुने है उनके।
गंगा जमना’ यह उनका पहला चित्रपट मैंने देखा था तब ही अंदर मैंने तय कर लिया कि मैं बस दिलीप कुमार बन जाऊंगा।
मेरी नजर में कलाकार होना यानी दिलीप कुमार होना।

मेरे तो जेहन में भी नहीं आया था कि मैं कभी मिल भी पाऊंगा उनसे। लीडर की शूटिंग चल रही थी, इतनी भीड़ कि कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। मैं पीछे कहीं भीड़ का हिस्सा था।
स्टेज से दिलीप साहेब ने जोर से पुकारा कि मट्ठी ऐसे पकड़ो और हाथ से हवा में घुमा दो और बोलो,मारो। सबने किया ऐसा, लेकिन मैंने जरा ज्यादा दम से किया।
लीडर फिल्म देखते हुए उस भीड़ में आसमान में हाथ उछालते हुए मैं अपने आपको ढूंढ रहा था। लेकिन परदे पर दो ही लोग थे, भीड़ और दिलीप कुमार।
आज भी मैं अभिमान से कहता हूं कि मेरी पहली फिल्म लीडर है।
एक फुटबॉल मैच रखा था किसी की मदद के लिए क्रिकेटर्स और कलाकारों के बीच। दिलीप साहेब रेफरी थे। मेरा सारा ध्यान उन पर ही।
खेलते-खेलते किरण मोरे का घुटना मेरे पेट में घुस गया। दर्द के मारे मैं गिर पड़ा।

मुझे गाडी में डालकर नानावटी अस्पताल ले गए मेरे साहेब मुझे। मैंने किरण मोरे को शुक्रिया कहा,
ये सौभाग्य ही था मेरा कि चोट की वजह से मैं उनके करीब था कुछ वक्त के लिए।
बहुत यादें है सभी के पास। छोटे से क्लोज-अप में सब कुछ कह जाने वाले दिलीप साहेब। मेरी पीढ़ी को तो मगर उनका स्पर्श हुआ है।
आज सुख-दुख, हर्ष-विमर्श, प्रेम -विद्वेष सभी की व्याख्या बदल चुकी है।
मैं उनका कौन था, फिर भी मैं असीम पीड़ा महसूस कर रहा हूं।
उनकी जीवन संगिनी सायरा जी पर क्या बीत रही होगी इस वक्त।

पत्नी होना उनका कब कहां, खत्म हुआ था, रुक गया!
किसने जाना। तब भी मां, कभी बाप,भाई, बहन,मित्र। कितनी भूमिकाएं निभाती रहीं वो, और कितने बेहतरीन तरीके से।
अपने चेहरे की मुस्कान कभी ढलने नहीं दी उन्होंने। क्या याद करती होंगी अब? आंखों का क्या है, झरती हैं, बहती हैं।
लेकिन मन का क्या? घर का हर कोना, साहेब का होगा।
मैं तो कल-परसो भूल भी जाऊं शायद, वो कैसे सहेंगी?
कभी-कभी ऐसा लगता है, ये जो आखिरी वक्त साहेब को कुछ याद नहीं आ रहा था, ये शायद उनका अभिनय होगा।

इर्द-गिर्द के सामाजिक, राजनीतिक परिस्थिति देखकर शायद उन्होंने सोचा हो कि भूलना ही बेहतर है।
अकेले में सायरा जी से जरूर बात करते होंगे। एक-दूसरे की दुनिया बनकर रह रहे थे दोनों।
सायरा जी मैं आपको झुककर प्रणाम कर रहा हूं, आपके जरिए मेरे भगवन तक मेरा भाव, मेरी श्रद्धा जरूर पहुंचेगी, मुझे पूरा यकीन हैं।

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