ओ रस्सी अबतक नही बनी जो मकबूल को फांसी के फंदे से लटका दे
विशेष संवाददाता एवं ब्यूरो
जज साहब वो रस्सी अभी तक बनी नहीं..
जो मक़बूल को फाँसी लगा सके
एक इंस्पेक्टर की हत्या के मामले मे तो शफफाक गोरे, सुशिक्षित, अंग्रेजीदां कश्मीरी सेपरेटिस्ट- मकबूल बट्ट को फांसी हुई थी।
ये सन 1966 था।
मुजरिम ने जेल मे 40 फुट सुरंग खोदी।
सजा के 4 माह बाद ही भाग निकला। हफ्तो छिपकर , पैदल चलते वह सीधे पाकिस्तान पहुंचा।
अब क्रांति पाकिस्तान से होने लगी। 70 का दशक, और भला वो क्राति क्या जिसमे कोई प्लेन हाइजैक न हो। तो मकबूल बट्ट ने इंडियन एयरलाइंस का विमान अपहरण करने का प्लान किया ।
और प्लान के मुताबिक
30 जनवरी 1971 को जब श्रीनगर एयरपोर्ट से दिल्ली आने वाला विमान उड़ा, दो अपहर्ताओं ने कब्जा कर लिया। और सीधे उतरे लाहौर।
वहां मकबूल भट्ट और उसकी कंपनी ने स्वागत किया। फोटो मे हवाई जहाज के नीचे, जेम्स बांड की तरह चश्मा लगाए मकबूल बट्ट के दर्शन कर लीजिए।
तो प्लान एकदम सॉलिड था।
भारत सरकार 36 आतंकी छोड़ दे, वर्ना सारे पासिंजर मार देंगे।
पर बट्ट ने प्लान का वक्त गलत चूज किया था।
अगर वो वीपी सिंह या अटल बिहारी बाजपेयी जैसे कमतर किस्म के पीएम के दौर मे कोशिश करता तो निश्चित रूप से सफल होता।
पर 1971 मे सत्ता मे कांग्रेस थी, इंदिरा गांधी थी। तो कहने का मतलब, बेचारे की प्लानिंग 20-30 साल अर्ली हो गई थी। यह बड़ी गलती थी।
इंदिरा ने लाल लाल आंखे करके पाकिस्तान से खरी खरी बात की। लव लेटर लिखा, और पाकिस्तान की भारत पर से उड़ान रोक दी।
पाकिस्तान अभी पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) मे फंसा हुआ था। वहां फौज, साजोसामान, अफसर, डिप्लोमैट रोज आना जाना करते। उसे गले मे फांस लगी तो चटपट मकबूल को, मजबूर कर दिया।
अब बाप डरे, तो बेटा क्या करे?
प्लेन के सारे पासिंजर भारत भेज दिए गए। खिसियाये बट्ट ने लाहौर एयरपोर्ट पर खाली प्लेन मे आग लगा दी। प्लेन धू धू करके जल गया। तस्वीरे इटरनेट पर मिल जाऐंगी।
इसपर प्रोपगंडा युग मे एक दो कौड़ी की पिक्चर बनी है। IB 71 नाम से। फिल्मे देखकर इतिहास सीखने वाले इसे खोजकर देख दें।
मकबूल बट्ट कुछ बरस बाद फिर भारत आया, और बारामूला मे एक बैंक लूटा। बैंक मैनेजर की हत्या कर दी। आखिर क्रांति करने के लिए पैसे चाहिए।
और मकबूल बट्ट तो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का संस्थापक था।
जल्द ही धर लिया गया। अबकी बार तिहाड़ जेल मे रखा गया। उसका केस जस्टिस नीलकंठ गंजू ने सुना, और फांसी की सजा दी। अपील वगैरह खारिज हुई।
इस बार वो रस्सी बन चुकी थी,
जो मकबूल को फांसी लगा सके।
मकबूल, कश्मीरी आतंकियो का पितृ पुरूष था। 1981 मे एक भारतीय डिप्लोमैट रविन्द्र म्हात्रे को ब्रिटेन मे किडनैप कर लिया गया और बट्ट को छोड़ने की मांग रखी।
इंदिरा ने मांग सुनी। कहा – ठीक है।
औरे बट्ट का फांसी पर लटका दिया।
म्हात्रे की हत्या कर दी गई। साथियों ने जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या की कसम खाई। पर इसका वक्त अभी पका नही था।
1989 आया। गृहमंत्री की बेटी रूबाईया सईद के अपहरण कांड मे घुटने टेकर आतंकियो को बता दिया गया कि अब एक कमजोर सरकार है।खुशी से बौराये आतंकियो के दिल का भय खत्म हो गया। चुन चुनकर ऐसे लोगों की हत्या की गई जो स्ट्रिक्ट पुलिस अफसर थे, इंटेलिजेंस अफसर थे, जज या नेता थे, और भारत समर्थक माने जाते थे।
इसमे नेशनल कांफ्रेस के युसुफ हलवाई और मीरवाइज फारूक शामिल थे। रिटायर्ड जस्टिस गंजू भी टारगेट करके, 1989 मे मार डाले गए।
कश्मीर मे राजाओं के जमाने से प्रशासन मे पंडित ज्यादा थे। जाहिर है अफसरों की हत्या मे, पंडित काफी थे। संसद मे एक सवाल का उत्तर था कि उस वर्ष कुल 400 लोग मारे गए, जिसमे 90 के करीब कश्मीरी पंडित थे।
इसके बाद कश्मीर एक इलाकाई प्रशासनिक समस्या की जगह, राष्ट्रीय हिंदू मुस्लिम इवेन्ट बन गया।
कश्मीरी पंडितो का “नरसंहार”, बड़ा राजनीतिक जुमला बना। कश्मीर सिगड़ी बन गया, जिसके सुलगते रहने पर शेष भारत मे देशभक्ति की आंच मे वोटो खिचड़ी पकाई जाने लगी।
आने वाले दौर मे जब जब समझदार सरकारें रही, कश्मीर का ताप कम हुआ। जब पागल घुटनाटेक लोग गद्दी पर रहे, आतंकी छोड़े, जहाज किडनैप करवाये..
और कश्मीर से लोकतंत्र छीन उसे और सुलगा दिया।
मकबूल बट्ट जहीन था, बुद्धिमान था। अपने इलाके का हीरो था। लेकिन एक्स्ट्रीमिस्ट था। हमारे ओर भी जहीन था, बुद्धिमान, हीरो मौजूद है। लेकिन एक्स्ट्रीमिस्ट है।
और एक्स्ट्रीमिस्ट किसी चीज का हल नही निकाल सकते।
क्या बात कश्मीरियों को समझनी चाहिए
शेष भारत को भी ।
संवाद;पिनाकी मोरे