नफरत के कारोबारियों को इस से क्या फरक पड़ता है,जो हिंदुओं को सिख दे रहे कि मुसलमानों की दुकान से सामान न खरीदें!

विशेष संवाददाता एवं ब्यूरो

अयोध्या में भगवान राम पीढ़ियों से मुसलमानों के सिले कपड़े और कलगी पहनते हैं। श्रद्धालु उनके बेचे हुए प्रसाद- सिंदूर, चूड़ी, बिंदी, कलावा, माला खरीद कर घर ले जाते हैं। लेकिन नफरत के कारोबारियों को इससे क्या फर्क पड़ता है? उन्हें हिंदू जनता को सिखाना है कि मुसलमान की दुकान से सामान न खरीदें।

उत्तर प्रदेश में सरकारी हुक्म हुआ है कि “कांवड़ यात्रा मार्ग पर होटल-ढाबा-रेहड़ी और दुकान संचालक अपने ओरिजनल नाम बोर्ड पर लिखें, ताकि किसी को कोई कन्फ्यूजन न हो। कांवड़िए कहीं से भी सामान खरीद सकते हैं।” दिल्ली से हरिद्वार के बीच कांवड़ यात्रा मार्ग पर होटल-ढाबा और रेहड़ी संचालक बोर्ड पर अपने नाम लिखकर लगा रहे हैं।

जो इतना बड़ा भक्त है वह घर से बाहर, रास्ते में किसी के भी हाथ का पकाया अन्न कैसे खाएगा? विधान तो यही है कि चौके में बना खाया जाए और घर से बाहर न खाया जाए! जो होटल में खा सकता है, उसके लिए क्या हिंदू, क्या मुसलमान?

भोजन का छोड़िए तो बाकी चीजें बेचने वाले दुकानदार को अपना धर्म क्यों बताना है? कांवड़िए मुसलमान दुकानदार का आम और केला खा लेंगे तो मर जाएंगे? इस आदेश के पीछे मंशा क्या है?

यह नफरत का सरकारीकरण है। समाज में ऐसा बंटवारा तो मुगलों और अंग्रेजों ने भी नहीं फैलाया।

संवाद;पिनाकी मोरे

SHARE THIS

RELATED ARTICLES

LEAVE COMMENT