लाख कोशिशें कर लो जबतक EVM पर बैन नही तब तलक मोदी जी के सामने कोई किसी भी जीत नही ,

विशेष संवाददाता एवं ब्यूरो

कांग्रेस में इतना कन्फ्यूज़न क्यों?

एक तरफ वजीर-ए-आजम नरेन्द्र मोदी लोकसभा एलक्शन में अपनी पार्टी को तीन सौ सत्तर (370) और एनडीए को चार सौ पांच सीटें जितवाने का दावा करते हुए कह रहे है कि तीसरी बार सरकार बनाने के बाद उनकी सरकार देश के लिए बहुत बड़े-बड़े फैसले लेगी। दूसरी तरफ कांग्रेस लीडर राहुल गांधी है जो बार-बार यही रट लगाए हैं कि वजीर-ए-आजम मोदी बैकवर्ड तबके में पैदा नहीं हुए, उनकी तेली बिरादरी को बीजेपी ने दो हजार में बैकवर्ड तबके में शामिल किया था। राहुल को राय देने वाले यह भी नहीं सोचते कि मोदी बैकवर्ड खानदान में पैदा हुए या सवर्ण खानदान में इसका आम वोटरों पर क्या फर्क पड़ने वाला है।

बता दे कि इस वक्त मोदी जी का सियासी उरूज पर है तो उन्हीं की बात ज्यादा चल रही है। 2019 के लोकसभा एलक्शन में भी राहुल गांधी ने इसी किस्म की गलती की थी अपनी पूरी एलक्शन मुहिम में उन्होंने राफेल सौदे में कमीशनखोरी और चौकीदार चोर है, को फोकस किया था, जिससे उन्हें बड़ा सियासी नुक्सान उठाना पड़ा था।

यह एक तल्ख हकीकत है कि मोदी के कन्ट्रोल में बीजेपी के आने के बाद बीजेपी की आमदनी में न सिर्फ बेशुमार इजाफा हुआ है बल्कि बीजेपी में शामिल कई लीडरान के चोरी और रिश्वतखोरी के बड़े-बड़े रिकार्ड है, आज भी यह सिलसिला जारी है। इसके बावजूद सही या गलत देश का एक बड़ा तबका मोदी को चोर मानने के लिए तैयार नहीं है।

लोकसभा एलक्शन सर पर है। किसी भी दिन नोटिफिकेशन जारी हो सकता है, मोदी और अमित शाह न सिर्फ खुद चौबीस घंटे एलक्शन की तैय्यारियों में मसरूफ है बल्कि अपनी पूरी पार्टी को इस काम पर लगा रखा है। उनके पास एलक्शन लड़ने के लिए जितना पैसा है, कांग्रेस और बाकी तमाम पार्टियों को मिलाकर उसका दस फीसद भी नहीं है। सरकारी खजाने से मोदी के इश्तेहारात की भरमार अखबारों और टीवी चैनलों पर है। कयोंकि इनके पास बिकाऊ
गोदी मीडिया का भंडार है। जो दिन भर चौबीसों घंटे मोदी ,योगी और केंद्र की मौजूदा सरकार के कसीदे पढ़ने से कभी परहेज नहीं करते। जिस किसी भी सियासतदां से आधा और एक फीसद भी वोट मिलने की उम्मीद होती है, मोदी और अमित शाह उसे फौरन अपने साथ मिला लेते है।

नितीश कुमार की एनडीए में वापसी, राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी का एनडीए में शामिल होना और महाराष्ट्र में बड़े कांग्रेसी लीडर कहे जाने वाले अशोक चव्ह्नाण और मिलिंद देवड़ा जैसे लीडरान का कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल होना इसकी बड़ी मिसालें है।

दूसरी तरफ राहुल गांधी ‘न्याय यात्रा’ पर है तो पार्टी में कोई फैसले ही नहीं हो पा रहे है। बातचीत न हो पाने की वजह से बिहार बंगाल उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली और पंजाब में सीट शेयरिंग पर फैसला नहीं हो पाया। कांग्रेस की जानिब से कोई जवाब न मिलने और ईडी के दबाव में ममता बनर्जी ने बंगाल और अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली और पंजाब में सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का एलान कर दिया, फिर गठबंधन कैसे चुनाव लड़ेगा?

कांग्रेस में कन्फ्यूजन का आलम यह है कि कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश जहां कांग्रेस की अपनी सरकारे हैं और उन प्रदेशों में जिनमें इलाकाई पार्टियां नहीं है, सीट शेयरिंग का भी कोई मसला नहीं है, वहां भी कांग्रेस अपने उम्मीदवार नहीं तय कर रही है। वजह वही एक है कि राहुल गांधी यात्रा पर है और खड़गे समेत बाकी लोग उनकी गैर मौजूदगी में कोई फैसला नहीं कर सकते, हद यह है कि सत्ताइस फरवरी को राज्य सभा के चुनाव होने है। कांग्रेस को दस सीटें मिलने की उम्मीद है, बीजेपी और दूसरी इलाकाई पार्टियों के उम्मीदवारों के पर्चे नामजदगी भी दाखिल होने लगे लेकिन यह मजमून लिखे जाने तक कांग्रेस अपने राज्य सभा के उम्मीदवारों के नाम भी तय नहीं कर पाई थी। आम ख्याल यह है कि राहुल गांधी के इर्द-गिर्द जयराम रमेश और के.सी. वेणुगोपाल जैसे जिन लोगों का जमावड़ा है उनकी खुद की तो कोई सियासी हैसियत है नहीं, कभी एलक्शन लड़े नहीं और पंचायत तक का एलक्शन जीतने की हैसियत में नहीं है। उन्हीं लोगों का गरोह राहुल गांधी को कन्फ्यूजन किए हुए है दिग्विजय सिंह, अशोक गहलोत, डी.के. शिवकुमार, डाक्टर शकील अहमद, भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, सुशील कुमार शिंदे, मनीष तिवारी यहां तक कि अधीर रंजन चौधरी वगैरह जो सियासी मश्विरे दे सकते है, उन सबको राहुल गांधी से दूर-दूर ही रखा जा रहा है।

मोदी भले ही चार सौ पार का नारा लगाते रहे, लेकिन जमीनी हकीकत तो उनके दावे से कोसों दूर है, कर्नाटक, बंगाल, बिहार, झारखण्ड और महाराष्ट्र जहां 2019 में मोदी ने बड़ी कामयाबी हासिल की थी, उन्हीं प्रदेशों में मोदी की गाड़ी फंसती नजर आ रही है, लेकिन सवाल यह है कि इन प्रदेशों में कांग्रेस तो सही वक्त पर फैसले करे। ईवीएम को लेकर सबसे पहले गौरो फिक्र करे।वैसे तो महाराष्ट्र के साबिक चीफ मिनिस्टर अशोक चाह्नाण कई सालों से बीजेपी के साथ पींगे बढ़ाए हुए थे, लेकिन राहुल गांधी की जानिब से भी तो उन्हें पूरी तरह नजर अंदाज किया गया।

मुंबई के दूसरे लीडर मुस्लिम चेहरा कहे जाने वाले बाबा सिद्दीकी कई बार मेम्बर असम्बली है। उन्होंने कारपोरेशन से अपनी सियासत शुरू की थी, अशोक चव्ह्नाण से पहले वह भी कांग्रेस छोड़कर अजित पवार की एनसीपी में शामिल हो गए थे। सबकी एक ही शिकायत रहती है कि राहुल गांधी और प्रियंका का पार्टी पर पूर कन्ट्रोल है। लेकिन दोनो ही मिलने का टाइम नहीं देते और न किसी की बात सुनते है। महाराष्ट्र से कांग्रेस का एक मेम्बर राज्य सभा जा सकता था, लेकिन अशोक चव्ह्नाण के जाने और तकरीबन एक दर्जन मेम्बरान असम्बली के ढुलमुल रवैये की वजह से वह एक सीट भी खतरे में पड़ गई है।

राहुल गांधी और प्रियंका जरूरत से ज्यादा मेहनत करें या न करें अपनी दादी इंदिरा गांधी, वालिद राजीव गांधी और वालिदा सोनिया गांधी की तरह कांग्रेस लीडरान और अपने वर्करों के लिए अपने दरवाजे खोल दे, रोजाना मुलाकात का सिलसिला शुरू कर दे तो आधे से ज्यादा मसायल हल हो सकते है, लेकिन दोनो को घेरने वाले गरोह जो है। वह उन्हें ऐसा नहीं करने दे रहे हैं कम्युनिस्ट आइडियालोजी, पूरी दुनिया में खत्म हो गई, चीन और रूस तक कैपेटिलिस्ट हो गए, सैंतीस साल तक मजबूत हुकूमत चलाने के बावजूद मगरिबी बंगाल से कम्युनिस्टों का सफाया हो गया, लेकिन राहुल और प्रियंका आज भी कम्युनिस्टों से कुछ ज्यादा ही मुतास्सिर दिखते है।

दूसरी तमाम पार्टियों के लीडरान के मुकाबले सीपीएम जनरल सेक्रेटरी सीताराम येचुरी और सीपीआई के जनरल सेक्रेटरी डी राजा ही राहुल गांधी के सबसे ज्यादा नजदीकी है। उन्हीं से ज्यादा मुलाकातें और बातचीत होती है और राहुल व प्रियंका के दफ्तरों परभी कम्युनिस्ट ही हावी है, कांग्रेसी बाहर है, जाहिर है ऐसे में कन्फ्यूजन तो पैदा ही होगा।

संवाद:कोगमद अरशद यूपी

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