सिर्फ 313ही तो थे जंगे बदर में मुसलमान , अल्लाह ने फरिश्तों द्वारा करवाई थी मदद, रातों में जाग कर दिन में सोनेवाले वाली कौम का अंजाम

रातों को जाग कर दिन में सोने वाली क़ौम का अंजाम

बहादुर शाह ज़फर के सारे शहजा़दों के सर काट कर उसके सामने क्यों पेश किए गए?
क़ब्र के लिए ज़मीन की जगह क्यों ना मिली?
आज भी उसकी नस्ल के बचे खुचे लोग भीख मांगते फिरते हैं?
क्यों?

पढ़ें और अपनी नस्ल को भी समझाएं.

तबाही 1 दिन में नहीं आ जाती..
सुबह देर से जागने वाले लोग नीचे लिखी गई पोस्ट को ध्यान से पढ़ें।

यह दौर लगभग 1850 ई का है जगह दिल्ली है , वक्त़ सुबह के 3:30 बजे का है सिविल लाइन में बिगुल बज चुका है..
50 साल का कप्तान रॉबर्ट और 18 साल का लेफ्टेनन्ट हेनरी दोनों ड्रल के लिए जाग गए हैं।

2 घंटे बाद सूरज निकलने के वक्त़ अंग्रेज सिविलियन,फौजी भी जागकर वरज़िश कर रहे हैं,
अंग्रेज़ औ़रतें घुड़सवारी के लिए निकल गई हैं..
7:00 बजे अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट ऑफिसों में अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठ चुके हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी का सफी़र दरबारी सरथामस मिटकाफ दोपहर तक काम का अक्सर हिस्सा ख़त्म कर चुका है।
कोतवाली और शाही दरबार के इ़लाकों का जवाब दिया जा चुका है!

बहादुर शाह ज़फर के ताजा़ हा़लात की ख़बरें आगरा और कोलकाता भेज दी गयी हैं
दिन के 1:00 बजे सरथामस मिटकाफ़ बग्गी पर सवार होकर इंटरवल करने के लिए घर की तरफ़ चल पड़ा है।
यह है वो वक्त़ जब लाल क़िला के शाही महल में सुबह की चहल-पहल शुरू हो रही है।
शहंशाह बहादुर शाह ज़फर के महल में फज्र के वक्त़ मुशायरा ख़त्म हुआ था जिसके बाद शहंशाह और उनके दरबारी अपनी-अपनी आराम गाहों चले गये थे ।

अब कनीज़ें बर्तन में पानी ले कर शहंशाह का मुहं धुला रही हैं, और तौलिया थामे महज़बीन शाही नाक साफ़ कर रही हैं, और हकीम चमनलाल शहंशाह के मुबारक पांव के तलवों पर रोग़न जैतून का तेल मसल रहे हैं।
इस हकी़क़त का तारीख़ी सुबूत मौजूद है कि लालक़िला में नाश्ते का वक़्त और उसी दिल्ली में अंग्रेज़ों के लंच का वक्त़ एक ही था।
दो हजा़र से ज़्यादा शहजा़दों का बटेर बाजी ,मुर्ग बाज़ी, कबूतर बाज़ी, और मेंढों की लड़ाई का वक्त़ भी वही था।

अब एक सौ साल या डेढ़ सौ साल पीछे चलते हैं

यूरोप से नौजवान अंग्रेज़ कोलकाता, हगली और मदारस की बंदरगाहों पर उतरते हैं बरसात का मौसम है, मच्छर हैं, और पानी है, मलेरिया से दो अंग्रेज़ रोजाना मरते हैं लेकिन एक शख़्स भी इस मौत की वबा से वापस नहीं जाता..
लॉर्ड क्लाइव पेहरोल घोड़े की पीठ पर सवार रहता है।

अब 2018 में आते हैं।

कामयाब मुल्कों में बड़े से बड़ा डॉक्टर 7:00 बजे सुबह से हॉस्पिटल में मौजूद होता है। पूरे यूरोप, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, और सिंगापुर में कोई ऑफिस, कारखाना, कारोबारी शोबा ऐसा नहीं जहां अगर ड्यूटी का वक्त़ 9:00 बजे है तो लोग 9:30 बजे आएं।
आजकल चीन दुनिया की दूसरी बड़ी ताक़त बन चुका है,* पूरी कौ़म सुबह 6:00 बजे नाश्ता, और दोपहर 11:30 बजे लंच, और शाम 7:00 बजे तक डिनर कर चुकी होती है।

अल्लाह की सुन्नत किसी के लिए नहीं बदलती, उसका कोई रिश्तेदार नहीं, ना उसने किसी को जना,न ही किसी ने उसको जना, जो मेहनत करेगा तो वह कामयाब होगा।
ईसाई वरकर थामसन मेटकाफ 7:00 बजे ऑफिस पहुंच जाएगा, तो कामयाब होगा चाहे ई़साई क्यूं न हो.. तो दूसरी तरफ़ दिन के 1:00 बजे तौलिया थामें ह़सीनाओं से चेहरा साफ़ करवाने वाला बहादुर शाह ज़फर मुसलमान बादशाह ही क्यों ना हों नाकाम रहेगा।

जंग-ए-बदर में फ़रिश्ते मदद के लिए उतारे गए थे।

लेकिन इससे पहले मुसलमान पानी के चश्मों पर क़ब्जा़ कर चुके थे जो आसान काम नहीं था और ख़ुदा के रसूलﷺ रात भर प्लान बनाते रहे और रात के बाकी बचे हुए हिस्से में सजदे में रो रो कर अल्लाह की बारगाह में मदद त़लब करते रहे,और उसी जंग ए बद्र में तीन सौ तेरह मुसलमानों ने हज़ारों के लशकर को शिकस्त दी।
क्या इस कौ़म की बिखरी हुई रिवायतों को दुनिया में फिर से तबाह बर्बाद होने से दुनिया की कोई ताक़त बचा सकती है?

जिसमें किसी को इसलिए कुर्सी पर बिठाया जा सकता है कि वह दोपहर से पहले उठता ही नहीं, और कोई इस पर फख़र करता है कि वह दोपहर को उठता है। लेकिन दिन के तीसरे ह़िस्से तक रिमोट कंट्रोल खिलौनों से दिल बहलाता है। जबकि कुछ को इस बात पर फख़र है कि वह दोपहर के 3:00 बजे उठते हैं लाहौ़ला वला क़ुव्वत)

क्या इस समाज की पस्ती और ज़िल्लत कोई ह़द बाकी है?

जो भी काम आप दोपहर ज़वाल के वक्त़ शुरू करेंगे तो वह ज़वाल ही की तरफ जाएगा कभी भी उस में बरकत और तरक्की़ नहीं होगी,
और यह मत सोचा करें कि मैं सुबह सुबह उठकर काम पर जाऊंगा तो उस वक्त़ लोग सो रहे होंगे, मेरे पास ग्राहक किधर से आएगा?
ग्राहक और रिज़्क़ अल्लाह भेजता है.
जो अपनी इस्लाफ़ का इतिहास भूल जाते हैं उनका वुजूद तक बाक़ी नहीं रहता।सब कुछ मिट जाता है
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदी मुसलमानों।
तुम्हारी दास्तां तक न होगी दास्तानों में
ख़ुदा ने आज तक उस क़ौम की हालत नहीं बदली
न हो एह़सास जिसको अपनी हालत के बदलने का।

संवाद;
मो अफजल

इलाहबाद

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