अकीका का मतलब ही विलादत की खुशी है, भला ऐसा कौन मुसलमान अपनी औलाद की विलादात की खुशी में अकिका करना नही चाहता?

रिपोर्टर

अक़ीक़ा का मतलब ही विलादत की ख़ुशी है। भला कौन मोमिन अपने बच्चे की विलादत की ख़ुशी में अक़ीक़ा नहीं करता है।

अक़ीक़ा मेरे ख़्याल से चुनिंदा इस्लामिक अरकनों में से एक है, जिसपर कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है। हमारे नबी ने बच्चे की पैदाइश के सातवें दिन अक़ीक़ा कर देने की बात कही है, सातवें दिन अगर किसी सूरत में नहीं कर पाएं तो चौधवें दिन या इक्कीसवें दिन कर दिनों को मुस्तहब करार दिया है। ईमाम तिर्मजी ने इसे, जाम ए तिर्मजी, मीनल अक़ीक़ा, में वाज़े तौर पर बयान किया है।

हमारे नबी का अक़ीक़ा भी उनकी पैदाइश के सातवें दिन, उनके दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब ने कर दिया था, जिसे इमाम इब्ने असद ने अपनी किताब, तारीख़ दमिश्क अल कबीर। ईमाम इब्न अब्दुल बर्र, ने अल इस्तियाब फि मरीफह अल असहाब। ईमाम इब्न क़य्यिम ने ज़ाद अल माद। ईमाम जलालुद्दीन सियुती ने, अल ख़ासाइस अल कुबरा। इमाम इब्ने हजर अस कालानी ने, फतह अल बारी। इमाम इमाम कुरताबि ने अहकामूल क़ुरआन। ईमाम हल्बी ने सीरत ए हलबिया में वाज़े तौर पर बयान किया है।

लेकिन, हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि, हमारे नबी ने अपने नबुआत के ऐलान के बाद अपना अक़ीक़ा किया था। जिसे 309 हिजरी में वफ़ात पाने वाले, ईमाम रोयानी अलैहि रहमा अपनी किताब मुसनद उद सहाबा में नक़ल करते है। इसी बात को ईमाम अल बेहक़ी अलैहि रहमा, सुनन ए कुबरा ज़िल्द 9 बाब 43 में नक़ल करते हैं।

अब सवाल ये है कि, हमारे नबी ने अपना अक़ीक़ा दुबारा क्यों किया? इसे इमाम जलालुद्दीन सुयुति अलैहि रहमा ने बड़ी ख़ूबसूरती के साथ बयान किया है, वो कहते हैं, नबुअत के बाद हमारे नबी ने अपनी तरफ़ से बकरे ज़िबह किए, जिसके लिए अक़्क़ा लफ्ज़, हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया है। उस अक़्क़ा लफ्ज़ से बाजों ने अक़ीक़ा मुराद कर लिया, जो बात ग़लत है। उसकी वजह ये है कि, ऐसी कई हदीसें मौजूद है, जिसमे हमारे आक़ा कहते हैं सातवें दिन अकीका कर दो, वरना बच्चा कर्ज़दार रहता है।

जबकि हमारे नबी का अक़ीक़ा मिल्लत ए इब्राहिम के मुताबिक आप के दादा ने सातवें दिन ही कर दिया था। आप ये कह सकते हैं कि, वो दौर एक जहालत था इस लिए आप ने दुबारा अपना अक़ीक़ा किया। फिर हमारे नबी ने हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा से दुबारा निकाह क्यों नहीं किया, वो भी तो मिल्लत ए इब्राहिम के तरीक़े से दौर के जहालत में हुआ था। एक और बात समझिए कि, हमारे आक़ा ही फ़रमाते है कि, अगर 7वें 14वें या 21वें दिन अक़ीक़ा नहीं किया जाए तो बच्चा कर्ज़दार रहता है, तो क्या हमारे आक़ा ने अपने आपको 40 साल तक कर्ज़दार रखा? (माज़ अल्लाह)

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए, इमाम जलालुद्दीन सुयुति अलैहि रहमा फ़रमाते हैं, वो अहकाम जो अहकाम ए खैर हो, अहकाम ए साले हो, शरीयत ने उन सारे अहकाम को नबुअत के एलान के बाद भी बरक़रार रखा है। फ़िर इमाम जलालुद्दीन सुयुति अलैहि रहमा आगे अपनी किताब ‘अल हदी लील फतवा’ ज़िल्द 1 सफा 303 में फ़रमाते हैं, वो अक़ीक़ा शरई नहीं था, अक़ीक़ा का दोहराना ज़रूरी नहीं, वो हुज़ूर ने अपनी विलादत की खुशी में किया था।

मुझे नहीं पता, आप इसे किस तरह समझेंगे, ऐसी कोई मिसाल नहीं है कि, किसी सहाबा ने नबुअत के एलान के बाद दुबारा निकाह किया हो या दुबारा अपना अक़ीक़ा किया हो, यहां तक कि दौर ए जिहालत में जो गुनाह किये गए, ईमान लाने के बाद उसकी तौबा की भी ज़रूरत बाक़ी नहीं थी।

विलादत का मतलब ही ख़ुशी है, अक़ीक़ा उसी ख़ुशी का शरई तरीका है, जिसमे बच्चे की जान का सदक़ा दिया जाता है और रिश्तेदारों को जानवर ज़िबह कर के खाना खिलाया जाता है। एक हदीस जो हज़रत अली से मरवी है, हमारे नबी हज़रत हसन का अक़ीक़ा करने के बाद, हज़रत फ़तिमा के कहते हैं, हसन का सर शेव कर दो और उस बाल के बराबर चांदी, ग़रीबों में बांट दो।

ये ख़ुशी नहीं तो और क्या है? आप ख़ुसी के तरीक़े पर सवाल कीजिये मैं ख़ुद आपके हाँ से सहमत मिलूंगा लेकिन अगर आप ये कहेंगे कि, सऊदी में ऐसा होता है क्या? जहाँ हमारे नबी आराम फरमा रहे हैं तो मैं आपसे सवाल ज़रूर करूँगा की, क्या 1932 से पहले भी वहां मिलाद नहीं मनाया जाता था? जन्नत उल बक़ी में क़ब्रों की शिनाख़्त नहीं थी? और आज जो कलमा ए सहादत को झंडा बना कर नेशनल डे पर, नाच गाना होता है, हमारे नबी के ज़िन्दगी के किस दौर में ऐसे वाहियात कारनामा हुआ था?

नबी के विलादत के दिन जश्न मनाइए, अगर नबी की विलादत में खुशी मानना हराम है तो ज़िन्दगी में मुस्कुराना भी जायज़ नहीं हो सकता है।

संवाद:


जोहर भाई की पोस्ट

SHARE THIS

RELATED ARTICLES

LEAVE COMMENT