आज इनका विस्तार विश्वव्यापी हो चुका है,काश इन सब न्यूज चैनल की शुरआत 50व 60 के दशक से हुई होती तो आज दुनिया अलग होती
मुंबई
संवाददाता
दर असल देखने को मिल रहा है कि ऐसे भी कुछ न्यूज चैनल आज मौजूद है जो गोदी मीडिया के नाम से जाने और पहचाने जाते है । सच्ची खबरे दिखाई देने वाले चैनलों को लेकर बात करे तो पता चलता है कि देश पर हुकूमत कर रहे शासक हो,कोई संस्थान हो या कोई प्रधान मंत्री हो उनकी दबाव में रहते न्यूज परोसा जाता है। जिसकी वजह से देश की जनता में ऐसे न्यूज चैनल को लेकर भरोसा कम होता जा रहा है। अगर किसी खास न्यूज चैनल के किसी खास पत्रकार एंकर ने अपनी जान की परवाह न करते सच्ची खबर का प्रसारण किया तो देश के हुक्मरान उस न्यूज चैनल पर प्रतिबंध लगा कर उसे बंद करने की चेतावनी देकर उस पत्रकार को प्रताड़ित करने की कोशिश करते है। ऐसा सदियों से चला आ रहा है। जंक पत्रकारों को आजादी से सच्ची खबर छापने का अधिकार है। उस पर ना हक पाबंदी लगाना काबिले जुर्म साबित हो सकता है। लेकिन क्या करे कुछ न्यूज चैनल सत्तासीन, शासकों हाथों बिक चुके है उनके हाथ की कठपुतली बनकर रह गए हैं। इस की वजह वही जाने। हमे बताने की जरूरत नहीं है। आम जनता जानती है इस की जो भी कुछ वजह है।
खैर
ऐसे में कुछ
अब विदेशी पश्चिमी देश के न्यूज चैनल की बात करते है
अल जज़ीरा अरेबिक की शुरुआत 1996 में हुई।
अल जज़ीरा इंग्लिश की शुरुआत-2006
अल अरेबिया अरेबिक की शुरुआत-2003
अल अरेबिया इंग्लिश की शुरुआत-2007।
TRT World की शुरुआत-2015
RT न्यूज़ की शुरुआत-2005 हुई।
खुद सोचिये कब ये चैनल नहीं रहे होंगे,तब प्रोपेगैंडा का स्तर क्या रहा होगा?इन सबकी शुरआत 90 के दशक में हुई और इनके इंग्लिश वर्जन की शुरुआत 2000 के दशक और 2010 के दशक में हुई है।
इतने कम समय मे ही ये अंतरराष्ट्रीय चैनल के रूप में आज प्रभावी चैनल के रूप में शामिल हैं और उनके प्रोपेगैंडा को सफलतापूर्वक खंडन करके लोगों का विश्वास जीत रहें हैं।आज यह चैनल पश्चिमी देशों में भी लोकप्रिय हैं और उनके पास भी प्रोपेगैंडा का तोड़ पहुंच रहा है।
यही वजह है कि फ़लस्तीन आज पश्चिमी देशों के लोगों में ज्यादा जागरूकता फैला चुका है और लोगों में असाधारण समर्थन मिल रहा है।ऐसे चैनलों की शुरुआत तो 50-60 के दशक में हुई होती तो शायद आज दुनिया अलग होती।खैर देर ही सही पर शानदार काम कर रहे हैं ये चैनल।
आज इनका विस्तार विश्वव्यापी है और रियल टाइम ऑथेंसिटी के साथ लगातार काम कर रहें हैं।
इनके अलावा सोशल मीडिया पर उपस्थित निजी तौर पर बहुत लोग और चैनल काम कर रहें हैं और यह भी एक अच्छा जरिया है प्रोपेगैंडा को सामने लाने का।हालांकि इस पर सेलेक्टिव फिल्टर और सेलेक्टिव प्रतिबंध होता रहता है पर इनके बिजनेस का आधार लोग हैं…..इसलिए कितना भी फिल्टर करेंगे इसकी एक सीमा है।
सोशल मीडिया में…
ट्विटर की शुरुआत-2007
फेसबुक की शुरुआत-2004
यूट्यूब की शुरुआत-2005 में हुई है।
अब खुद सोचिये कि इन सबके पहले उनके प्रोपेगैंडा का स्तर क्या रहा होगा और अपने तरीके का नैरेटिव बनाने में कितना ज्यादा कामयाब रहते होंगे।यही चीज इनके सफलता का आधार बनता रहा है।
जबसे इनके प्रोपेगैंडा का सफलतापूर्वक खंडन होना शुरू हुआ है, तब से इनके राजनीतिक-आर्थिक और जियोपोलिटिकल प्रभाव में लगातार गिरावट आयी है।
आज जरूरत है कम से कम ऐसे 20 अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों का और वो हिंदी सहित हर अंतरराष्ट्रीय भाषा 24×7 घण्टे प्रसारित हों।
एडमिन