क्या आरएसएस संघ और बीजेपी में अब दरार पड़ रही है ? एक काला सच
विशेष संवाददाता एवं ब्यूरो
देशबन्धु में संपादकीय आज.
संघ-भाजपा की नूरा कुश्ती
भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच इन दिनों जो कुछ होता दिख रहा है वह केवल आंखों का धोखा है। जैसे नूरा कुश्ती या डब्ल्यूडब्ल्यूएफ़ में होता है, पहलवान बड़े ही सुनियोजित व परस्पर सहमति के तहत एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। मारने वाला जानता है कि वह नकली मार है और बचाव करने वाला भी जानता है कि वह जो कुछ कर रहा है खुद के लिये पैसे जुटाने तथा दर्शकों के मनोरंजन के लिये कर रहा है। फ़र्क इतना सा है कि नूरा कुश्ती मनोरंजन के लिये है जबकि संघ-भाजपा की यह छद्म लड़ाई समाज के लिये उतनी ही
घातक है, जितनी दोनों के अंतर्संबंध।
यह सर्वज्ञात है कि भाजपा संघ का राजनीतिक विंग है, उसका अनुषंगिक संगठन। तकरीबन 100 साल (1925) पहले स्थापित संघ ने अपनी विचारधारा को समाज के विभिन्न स्तरों पर फैलाने के लिये अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने के लिये जो सहयोगी संगठन बनाये, उनमें ही पहले जनसंघ बनाया जो कालांतर में भाजपा बना। वही आज सबसे शक्तिशाली आकार में सामने है। 2014 से 19 एवं 2019 से 2024 तक दो बार केन्द्र की सत्ता हासिल करने वाली भाजपा ने इस दौरान न केवल देश के ज्यादातर राज्यों में अपनी सरकारें बनाईं वरन विपक्ष को भी बेहद कमज़ोर कर दिया। संविधान बदलने के लिये आवश्यक बड़ा बहुमत पाने से इस बार नाकाम रहना भाजपा की बड़ी हार मानी जाती है क्योंकि उसने न केवल लक्ष्य खोया वरन उसे आंध्रप्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी तथा बिहार के जनता दल (यूनाइटेड) की मदद से अपनी सरकार बनानी पड़ी है। पिछले दस वर्षों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पार्टी व सरकार पर एकछत्र राज तो किया ही, यह पहली बार है कि कोई भाजपा नेता अपनी मातृसंस्था आरएसएस से भी बड़ा हो गया है।
अगले साल अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरा करने के अवसर पर बड़ा जश्न मनाने की हसरत 2024 की पराजय के कारण ज़रूर फीकी पड़ गई होगी। इसी मलाल के चलते शायद कुछ ऐसी बातें सामने आई हैं जिन्हें देखकर लोगों ने मान लिया कि दोनों के बीच सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। इस दौरान कई ऐसे मौके आये जब संघ की भाषा भाजपा के चलाये नैरेटिव से या उनके नेताओं-कार्यकर्ताओं की सोच से अलग जाती दिखी।
मसलन, महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने गांधी को एक महान शख्सियत बतलाया और उनके भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान को सराहा तो यह पार्टी व संघ के लाखों कार्यकर्ताओं-स्वयंसेवकों के लिये हैरत की बात बनकर आई क्योंकि अब तक तो उन्हें इनसे नफ़रत करना ही सिखाया गया था।
बहुत से पुराने प्रसंगों को छोड़ दें तो हाल के चुनावों के दौरान जब यह लगने लगा था कि कांग्रेस व विपक्षी गठबन्धन इंडिया मजबूत टक्कर दे रहा है और लग रहा था कि भाजपा इस बार सरकार नहीं बना पायेगी, तो भागवत समेत कई बड़े नेताओं ने यह कहना शुरू किया कि भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार बनाती है तो संविधान नहीं बदलने जा रही। जनता में एक बड़ा डर यह था कि बहुमत से जीतने पर भाजपा-एनडीए आरक्षण समाप्त कर देंगे। होने वाले चुनावी नुकसान को भांपते हुए ही भागवत ने कहना शुरू किया कि जब तक समाज में भेदभाव मौजूद है वे आरक्षण के पक्ष में हैं। भाजपा नेताओं को तो और साफ ऐलान करना पड़ा कि न संविधान बदला जायेगा और न ही आरक्षण खत्म होगा।
बात तो वहां से उठी थी जब भाजपा के ही कई लोगों ने सार्वजनिक बयान दिये थे कि भाजपा को 370 और एनडीए को 400 सीटें इसलिये चाहिये क्योंकि संविधान बदलना है। ऐसे लोगों में अनंत हेगड़े, लल्लू सिंह, ज्योति मिर्धा और अरूण गोविल आदि थे। सवाल यह है कि भाजपा व उसके जरिये संघ की मंशा संविधान बदलने की थी ही नहीं तो इन्हें अपने बयान वापस लेने के लिये क्यों नहीं कहा गया या उनके खिलाफ पार्टी ने कार्रवाई क्यों नहीं की? दोनों के बीच रिश्तों में तब और नया मोड़ आया जब भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कह दिया था कि ‘अब भाजपा बड़ा दल बन गया है और उसे संघ की ज़रूरत नहीं रह गई है।’ उन्होंने ऐसा तब कहा था जब उनसे पूछा गया था कि इस बार के चुनाव में संघ के कार्यकर्ता भाजपा प्रत्याशियों की मदद करते नहीं दिख रहे हैं। भागवत भी कहते रहे कि संघ व भाजपा दो अलग संस्थाएं हैं।
हालांकि दोनों की बातों पर कोई भरोसा करने को तैयार नहीं क्योंकि सभी जानते हैं कि दोनों का एक दूसरे के बिना काम नहीं चल सकता। संघ अब वैसा संगठन नहीं रहा जिसका थोड़े में गुज़ारा होता हो। उसकी बढ़ती ज़रूरतें तो सत्ता के जरिये ही पूरी हो सकती हैं।
सदाशयता का नया अध्याय खोलते हुए भागवत कहते हैं कि ‘इस चुनाव में मर्यादाओं का पालन नहीं हुआ।’ उन्होंने राजनीति में विपक्षी दलों को ‘विरोधी’ नहीं, ‘प्रतिपक्षी’ मानने पर बल दिया जो किसी भी मसले का दूसरा पहलू बतलाते हैं। सवाल यह है कि जब मोदी व भाजपा ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ तथा ‘विपक्ष मुक्त भारत’ का नारा बुलन्द कर रहे थे तब भागवत चुप क्यों थे? सभी जानते हैं कि संघ उस विचारधारा को मानता है जिसमें विपक्ष नाम की कोई चीज़ न हो। वैसे संघ-भाजपा के बीच इस विवाद सदृश्य कुछ होता देखकर विपक्ष को खुश होने की आवश्यकता नहीं है। इससे उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला और न ही वह कम से कम इसके कारण मजबूत होने जा रहा है। उसे अपनी लड़ाई जारी रखनी होगी- विभिन्न मुद्दों के साथ ही संघ-भाजपा की विचारधारा के ख़िलाफ़ भी।
संवाद:पिनाकी मोरे