इस्लाम क्या है? अरबी ज़बान, टोपी, दाढ़ी, इबादत का तरीक़ा, हज, रोज़ा, ज़कात, लिबास या कुछ और? सच पूछो तो इनमें से कोई नहीं?

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रिपोर्टर:-

अरबी ज़बान क़ुरान नाज़िल होने से पहले मौजूद थी और शायद नबी ए करीम (सअ) को श्रीलंका भेजा गया होता तो क़ुरान की ज़बान सिंहली या तमिल होती।

ऐसा इसलिए क्योंकि पैग़ंबर स.अ. जो पैग़ाम लाते रहे हैं वो स्थानीय लोगों की ज़बान में होते हैं ताकि लोग आसानी से समझ सकें।
जाली वाली टोपी भी ईसाई और यहूदी मुहम्मद(सअ) की नबूवत के ऐलान से पहले से पहनते रहे हैं।

दाढ़ी यहूदी भी रखते हैं और खाने में हराम हलाल का हिसाब किताब उनका रब्बी भी बताता है।
अज़ान यानी इबादत का बुलावा, सजदा और पांच वक़्त हाथ बांध कर इबादत करने का तरीक़ा यहूदियों में पहले से रहा है।
हज, क़ुरबानी हज़रत हज़रत इब्राहीम (अस) की सुन्नत है जो 1400 साल से पहले भी जारी रही है।
ग़रीब मिस्कीनों का अमीरों की दौलत में हिस्सा देने की बात तौराह में भी है। फिर इस्लामी क्या है?

इस्लामिक है इंसान को इंसान समझने पर ज़ोर, सामाजिक बराबरी, अमीर और ग़रीब में भेद न करना, अच्छा अख़लाक़, अच्छा सुलूक़।
इस्लामी है एक पढ़ा लिखा, इल्मी और साफ सुथरा इंसानी मुआशरा बनाने पर ज़ोर।
इस्लाम एक ऐसे समाज पर ज़ोर देता है जहां सभी लोग बिना भेदभाव, बिना ख़ौफ, बिना ऊंच-नीच, बिना परेशानी और बिना परेशान किए रह सकें।

एक ऐसी सोसायटी जहां सभी को वर्ग, वर्ण, रंग, लिंग, इलाक़ियत और ज़बान के आधार पर भेदभाव का सामना किए बिना अपने निजी जीवन में आगे बढ़ने के सभी अवसर मौजूद हों।
मुआशरा न सिर्फ मज़हब मुताबिक़ चले बल्कि आर्ट्स, साइंस और दूसरे शोबों में हिस्सेदारी करके समाज को मज़बूत करने में योगदान दे सके।
ऐसा निज़ाम ज़हां ज़ालिम के लिए जगह न हो, मज़लूम के लिए हमदर्दी हो।

जहां ज़ुल्म, हक़तलफी, बेईमानी, चोरी और नाइंसाफी न हो।
ये वह शिक्षा हैं जो नबी ए करीम (सअ) ने क़रीब 610 ईस्वी में पहली वही आने और जून 632 में रेहलत के दरमियान लोगों की दीं।
दूसरों को काफिर और वाजिबुल क़त्ल बताने वाले ख़ुद अपना हिसाब करलें कि इन उसूलों के हिसाब से वह कितने इस्लामी हैं?

बिना मौलवी ख़ुद ही समझ लें कि ख़िलाफत और दुनियावी इमामत के हिसाब किताब में मशगूल लोग नबी ए करीम की कौन सी सुन्नत मानते हैं ?
और इस्लाम पर कितना अमल करते हैं? बस इतना सा हिसाब है।
दूसरों की इस्लाह करने और दोज़ख़ जन्नत का हिसाब करने के बजाय लोग जिस रोज़ इतनी सी किताबी बातों के हिसाब से चलने लगेंगे, दुनिया और आख़िरत, दोनों जन्नत नशीं हो जाएंगी ।

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