इस्लाम से पहले औरतों के क्या हालात थे,औरतों को इस्लाम ने आजादी दी है कि नही?
संवाददाता
इस्लाम ने औरत को आज़ादी दी है कि नहीं? इसका अंदाज़ा यूं भी लगाया जाता है कि इस्लाम से पहले औरत के क्या हालात थे। इसी दौर में यहूदी शरी’अत के सिर्फ़ औरतों के मुत’अल्लिक़ बाज़ अहकामात जो उनकी मरकज़ी क़ुतुब में मौजूद है, वो पेश हैं:
मा’रूफ़ यहूदी फ़िक़्ह की बुनियादी (standard) क़िताब मिशनाह के अम्र-ए-सालिस जिसको नाशीम (Nashim) कहते हैं, उसके पहले बाब में ये हुक्म मौजूद है कि अगर कोई औरत बेवा हो जाए, तो वो किसी मर्द से अपनी मर्ज़ी से निकाह नहीं कर सकती है। हां, अगर उसके शौहर का भाई उसको हासिल करना चाहे तो वो ऐसा कर सकता है बल्कि उसको चाहिए कि वो अपने भाई की बेवा से शादी करे ताकि उसके बच्चों की परवरिश हो। मगर अगर वो ऐसा नहीं चाहता, तो उनको एक रस्म जिसको हलीज़ा (Halizah) कहा जाता है, उससे गुज़रना होगा। इस रस्म में ये होता है कि ये बेवा औरत अपने शौहर के भाई का जूता उतारती है और उसके मुंह पर थूक देती है जिससे ऐसा मर्द उस ज़िम्मेदारी से आज़ाद हो जाता है।
आप अंदाज़ा लगाएं कि ये शरी’अत कितनी मुश्किल है कि एक एक चीज़ में ऐसे मराहिल से गुज़रना पड़ता है और फिर औरत के हवाले से उनका मौकिफ़ भी ज़ेर-ए-ग़ौर है। इस्लाम में बेवा औरत को अपनी मर्ज़ी से निकाह की पूरी इजाज़त है, और कोई क़ैद नहीं कि शौहर के भाईयों से ही निकाह होगा और न ही शौहर का भाई मुकल्लिफ़ है कि वो उनसे शादियां करे और न ही किसी ऐसी रस्म की ज़रूरत है।
तल्मूद येरुशल्मी (Talmud Yerushalmi) के इब्तिदाई अबवाब के मुताबिक़ किसी मज़हबी आलिम यानी रब्बी की बेटी अगर यहूदी नस्ल के अलावा किसी नस्ल से शादी करे, तो उसके निकाह में महर सज़ा के तौर पर कम की जायेगी अगर चे निकाह क़ुबूल किया जाएगा।
मिशनाह के अम्र-ए-सालिस नाशीम के पांचवे बाब में एक मौज़ू को ज़ेर-ए-बहस लाया गया है। अगर किसी शौहर को अपनी बीवी पर शक़ है तो इसके लिए भी एक रस्म यहूदी शरी’अत में मौजूद है और ऐसी औरत को सौताह (Sotah) कहा जाता है। तरीक़ा कार ये होगा कि मुक़द्दस पानी को हासिल करने के बाद उसको ज़मीन की मिट्टी से मिलाया जायेगा, इसके बाद औरत से ये अहद लिया जाएगा कि उसने ऐसी कोई हरक़त नहीं की है और उसको काग़ज़ पर लिख कर पानी के साथ मिला दिया जायेगा। फिर औरत को उसको पीना होगा और अगर उसका पेट ख़राब हुआ, तो मुजरिम है और उसको सज़ा होगी। उसका पेट अगर ख़राब नहीं हुआ, तो वो मासूम है और अपने शौहर के साथ ज़िंदगी बसर कर सकती है। याद रहे ये सिर्फ़ “शक़” पर है।
मिशनाह के अम्र-ए-सादिस तहारत (Tohorot) के सातवें बाब में एक मौज़ू ज़ेर-ए-बहस लाया गया है। वो औरत जिसको हैज़ आता हो, उसको निद्दाह (Niddah) कहा जाता है और उससे जिमा तो हराम ही है बल्कि जिस जिस चीज़ से उसका बदन लग जाए, वो भी गंदी हो जाती है और पाकीज़ा नहीं रहती। ऐसी सूरते हाल में उसके लिए या तो अलग बिस्तर का इंतिज़ाम किया जाएगा या अलैहिदा से किसी कमरे का इंतिज़ाम किया जायेगा ताकि उसकी नापाकी को दूर किया जाए।
यहां सिर्फ़ चंद अहकाम बयान हुए हैं, यहूदी शरी’अत इंतिहाई दिलचस्प है क्योंकि आपको इसमें इस्लाम की हक्क़ानिय्यत नज़र आयेगी। इन सब बातों को एक तहज़ीब और सक़ाफ़त के तौर पर दुनियां तस्लीम कर चुकी है मगर इस्लाम के अहकाम इससे बहोत आसान हैं, मगर इसके बावजूद उनको औरतों के मुख़ालिफ़ समझा जाता है।
एडमिन